भारत में शिक्षकों के रिक्त पदों का मामला कई वर्षों से अधर में लटका हुआ है। वर्ष 2018-19का उदाहरण लें, जिसमें शिक्षकों के अनुमोदित पदों के मुकाबले 11.7% पद रिक्त थे। राज्य स्तर पर पूर्व-प्राथमिक से लेकर माध्यमिक स्तर तक सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से तैयार की गई और शालेय शिक्षा के लिए शुरू की गई समेकित योजना ‘समग्र शिक्षा अभियान’ के तहत शिक्षकों के 17,64,956 पदों में से 19.1% पद रिक्त ही रहे और शिक्षकों के राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में 8.8% पद रिक्त ही रहे। इसी दौरान बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे पूर्वी राज्यों में अनुमोदित किए गए पदों में से 30% खाली ही रहे। राज्य दर राज्य इसके कारण अलग-अलग रहे हों, लेकिन राज्य की आर्थिक स्थिति को इसके लिए निर्णायक कारक माना गया।
भारत में ज़्यादातर सरकारद्वारा संचालित या सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त स्कूल दूर-दराज़ और भौगोलिक रूप से दूरस्थ स्थानों में सामाजिक-आर्थिक रूप से सुविधाहीन परिवारों और पिछड़े समुदायों के बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। यूनिफ़ाइड डिस्ट्रिक्ट इनफ़ॉर्मेशन सिस्टम फ़ॉर एज्युकेशन-प्लस (U-DISE+)-2018-19 (Provisional) के डेटा के अनुसार सरकार द्वारा संचालित 10,83,678 स्कूल और सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त 84,614 स्कूल थे।
सामान्य रूप से, अनुबंधित शिक्षकों को नियुक्त किया जाता है फिर उन्हें सुविधाहीन क्षेत्रों में भेजा जाता है और उन स्कूलों में भेजा जाता है जहाँ विद्यार्थियों की संख्या बहुत होती है और अभिभावक भी कमज़ोर वर्ग के होते हैं। इसी तरह, शहरी इलाकों में भी ऐसा ही होता है। शिक्षकों को आर्थिक रूप से कमज़ोर ऐसे परिवारों के विद्यार्थियों वाली स्कूलों में नियुक्त किया जाता है जो हाल ही में स्थानांतरित होकर शहर में आए हैं। U-DISE+ के डेटा के आधार पर अनुबंध वाले शिक्षकों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। 2010-11 में यह संख्या प्राथमिक स्तर पर 3,16,091 थी जो 2017-18 में बढ़कर प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर 6,32,316 हो गई। बहस का मुद्दा फिर भी बरकरार रहता है कि आखिर हम यह कैसे उम्मीद करें कि सुविधाओं और उपकरणों की सुविधाओं के बिना ये शिक्षक सबसे चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से कैसे निपटेंगे?
बेशक, आज भारत में शिक्षा की गुणवत्ता और विद्यार्थी का प्रशिक्षण चिंता का मुख्य विषय बना हुआ है। हालाँकि अपने यहाँ अनुबंधित शिक्षकों की नियुक्ति की कोई स्पष्ट नीति नहीं है, लेकिन यह परंपरा ज़रूर अपनाई गई है कि शिक्षकों की संख्या इतनी रखी जाए कि शिक्षा हासिल करने के तरीकों में सुधार लाए जाएँ। यह तरीका आर्थिक रूप से मुनासिब हो सकता और कुछ मामलों में यह शैक्षणिक अभिगमन के विस्तार को आगे बढ़ाता है।
शिक्षकों पर किए गए अध्ययन बताते हैं कि कोर्ट के माध्यम से शिक्षकों की भर्ती की प्रक्रिया को फ़ास्ट-ट्रैक पर लाने के प्रयासों में कमी और सामान्य उदासीनता जैसे राज्यों से विशेष रूप से जुड़े मुख्य कारणों की पहचान की गई, जो राज्य सरकार द्वारा अनुबंध शिक्षकों को नियुक्त करने के लिए होते हैं।
सभी राज्य अक्सर यह तर्क देते हैं कि अगर भविष्य में केंद्र सरकार कभी समग्र शिक्षा अभियान को बंद करने का फ़ैसला करती है, तो इस कार्यक्रम में भर्ती किए गए शिक्षकों के वेतन का बोझ उन्हें उठाना होगा। हो सकता है कि ऐसी परिस्थिति को टालने के लिए राज्य ‘समग्र शिक्षा अभियान’ राशि के माध्यम से अनुबंधित शिक्षकों को नियुक्त करने को तरजीह दें।
इसके अलावा, विभिन्न विषयों के शिक्षकों की अनुपलब्धता से जुड़ी चुनौतियाँ भी हैं। कई राज्यों में गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी जैसे विषयों के शिक्षकों की बड़े पैमाने पर कमी है। इस वजह से, ग्रामीण, दूरस्थ और आदिवासी इलाकों में स्थित कुछ स्कूल उच्च माध्यमिक स्तर पर विज्ञान और गणित जैसे विषय पढ़ाते ही नहीं हैं। सच तो यह है कि U-DISE+ 2017-18 डेटा के अनुसार कुछ राज्यों में उनके उच्च प्राथमिक स्कूलों में इन सभी तीन विषयों के शिक्षक ही नहीं हैं। इस दौरान, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में स्थिति चिंताजनक बनी हुई थी, जहाँ 90% उच्च प्राथमिक विद्यालयों में इन विषयों के शिक्षक ही नहीं थे। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान और जम्मू व कश्मीर जैसे राज्यों में तो स्थिति समान रूप से निराशाजनक थी।
एक अन्य मुद्दा जो पहले की सभी नीतियों का हिस्सा रहा है, वह है भर्ती प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना और उन्हें पारदर्शी बनाना। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) 2009 के अधिनियमन और अधिसूचना को लागू करने के मामले में सरकार ने शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) शुरू करने की घोषणा एक आवश्यक प्रक्रिया के रूप में की, जो शिक्षक भर्ती से पहले लागू होगी। समान रूप से महत्वपूर्ण, हर नीति जिसमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 भी शामिल है, शिक्षकों की भर्ती और नियुक्ति के लिए एक उचित प्रक्रिया की सिफ़ारिश करती है और यह सुनिश्चित करने पर विशेष ध्यान भी देती है कि सभी स्कूलों में आवश्यक विषय-शिक्षक हों।
इसलिए, यह सुनिश्चित करना एक व्यावहारिक कदम होगा कि सरकार द्वारा संचालित या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों में नियुक्त शिक्षकों को सरकारी कर्मचारियों के रूप में ही नियुक्त किया जाए, तब कहीं जाकर वे नौकरी की सुरक्षा के अलावा अच्छे वेतन जैसे विभिन्न लाभों और प्रोत्साहनों के हकदार बनेंगे। यह उन छात्रों के दीर्घकालिक लाभों के लिए एक अच्छा कदम होगा, जो सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों से संबंधित होते हैं। इसके अलावा, जब तक हमारे शिक्षकों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता है, तब तक इस प्रणाली में बदलाव लाने का सपना देखना संभव ही नहीं है, क्योंकि यही शिक्षक समाज में अपना जो योगदान करते हैं उसके लिए वे और भी बहुत कुछ पाने के हकदार हैं।
(इस लेख के लेखक श्री रुस्तम केरावाला अॅम्परसँडग्रुप के अध्यक्ष हैं।)
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