बुनकर का ज्ञान और निर्णय - Bunkar Ka Gyan Aur Nirnay
यह कहानी पंचतंत्र के मित्र सम्प्राप्ति भाग पर आधारित है।
एक बार की बात है, एक नगर में सोमिलिक नाम का जुलाहा रहता था। वह अपने काम में माहिर था, पर नगर में सबसे और रंगीन कपड़े बनाकर भी उसका मुश्किल से ही गुजर बसर होता था। अन्य जुलाहे सादा कपडा बनकर भी देखते देखते धनी हो गये थे।
उन्हें देखकर एक दिन सोमिलिक ने अपनी पत्नी से कहा "मामूली कपडा बुनने वाले जुलाहों ने भी कितना धन कमा लिया है और कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। मैं इतने सुन्दर वस्त्र बनाने के बाद भी आज तक निर्धन ही हूँ। लगता है यह नगर नगर मेरे लिए भाग्यशाली नहीं है; अतः मुझे विदेश जाकर धन कमाने का प्रयास करना चाहिए "
सोमिलिक की पत्नी ने कहा, "विदेश में धन कमाना बहुत कठिन होता है। अगर भाग्य में धन मिलना होगा तो स्वदेश में ही मिल जायेगा और अगर नहीं मिलना हो तो हाथ आया सबकुछ भी लुट जाता है।अतः यहीं रहकर काम करते रहिये, भाग्य में लिखा होगा तो यहीं धन की प्राप्ति हो जायगी ।"
सोमलिक यह सुन कर बोला -"भाग्य की बातें तो कमजोर लोग करते हैं जो मेहनत से डरते हों। लक्ष्मी हमेशा परिश्रम से प्राप्त होती है। मैं भाग्य की राह देखने की जगह, विदेश जाकर जतन करूँगा और धन कमा कर दिखाऊंगा।"
यह कहकर सोमलिक वर्धमानपुर चला गया । वहां तीन वर्षों में अपनी मेहनत से ३०० सोने की मुहरें लेकर वह घर की ओर चल पड़ा । रास्ता लम्बा था तो आधे रास्ते में ही दिन ढल गया और शाम हो चली । आस-पास कोई घर नहीं था । उसने एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर रात बितायी ।
सोते-सोते उसे एक स्वप्न आया जिसमें दो भयंकर दिखने वाले पुरुष आपस में बात कर रहे थे।
एक ने कहा – "हे पौरुष ! तुम्हें क्या मालूम नहीं है की सोमलिक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता, तब तुमने इसे ३०० मुहरें क्यों दीं ?"
दसूरा बोला – "हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक मेहनत करने वाले को एक बार उसका फल देता ही हूँ। उस फल को उसके पास रहने देना या नहीं रहने देना तुम्हारे हाथ में है।"
स्वप्न के बाद सोमलिक की नींद खुली तो देखा की मुहरों का पात्र खाली था। इतने कष्टों से इकठे किये धन के इस लुप्त हो जाने से सोमलिक बडा दुखी हुआ और सोचने लगा की वापिस जाकर सबको क्या मुंह दिखाऊंगा। यह सोचकर वह फिर से वर्धमान पुर वापस आ गया ।
इस बार उसने दिन-रात घोर परिश्रम करके वर्ष भर में ही ५०० मुहरें जमा कर ली। उन्हें लेकर वह फिर से घर की ओर चल पड़ा। इस बार फिर आधे रास्ते में रात हो गई पर इस बार वह सोने के लिए ठहरा नहीं और चलता ही रहा। पर चलते-चलते उसने फिर उन दोनों—पौरुष और भाग्य — को पहले की तरह बात-चीत करते सुना ।
भाग्य ने फिर वही बात कही -"हे पौरुष ! क्या तुम्हें मालूम नहीं की सोमलिक के पास भोजन वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता । तब उसे तुमने ५०० मुहरें क्यों दीं ?"
पौरुष ने वही उत्तर दिया —-"हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक व्यवसायी को एक बार उसका फल दंगूा ही, इससे आगे तुम्हारे अधीन है की उसके पास फल रहने दे या छीन ले।"
इस बात-चीत के बाद सोमलिक ने जब अपनी मुहरों की गठरी देखी तो वह मुहरों से खाली थी ।
इस तरह दो बार खाली हाथ रह जाने से सोमलिक का मन बहुत दुखी हुआ ।
उसने सोचा की इस धन-हीन जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है।
यही सोच कर उसने पास के एक वृक्ष की टहनी से रस्सी बााँधी और लटकने को तैयार हो गया।
पर तभी एक आकाश-वाणी हुई—"सोमलिक ! यह गलती मत करो। मैंने ही तुम्हारा धन चुराया है । तुम्हारे भाग्य में भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन नहीं लिखा। व्यथा के धनसंचय में अपनी शक्तियां नष्ट मत करो । घर जाकर सुख से रहो। तुम्हारे साहस से मैं प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहे एक वरदान मांग लो । मैं तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी करूँगा ।"
सोमलिक के मन में तो बस धन की चाह थी तो उसने फिर कहा, "मुझे वरदान में बहुत सारा धन दे दो।"
अदृश्य देवता ने फिर कहा, "धन का तुम्हें कोई उपयोग नहीं होगा क्यूंकि वह तुम्हारे भाग्य में नहीं है। भोग रहित धन को लेकर क्या करोगे?"
सोमलिक तो धन का तरस रहा था, वह बोला, "भोग हो या न हो, मुझे धन ही चाहिए । बिना उपयोग के भी धन की बडी कीमत है। संसार में वही पूज्य माना जाता है, जिसके पास धन हो।"
सोमलिक की बात सुनने के बाद देवता ने कहा, "अगर तुम्हारी धन की इच्छा इतनी ही प्रबल है तो तुम फिर से वर्धमानपुर चले जाओ। वहां दो बनियों के पुत्र हैं – एक गुप्तधन, दूसरा उपभुक्त धन। इन दोनों प्रकार के धनों का स्वरुप जानकर तुम वापसी में किसी एक का वरदान मांगना। यदि तुम उपभोग की योग्यता के बिना धन चाहेगा तो तुम्हें गुप्त धन दे दंगूा और यदि खर्च के लिए चाहेगा तो उपभुक्त धन दे दूंगा।"
यह कहकर देवता लुप्त हो गए ।
सोमलिक उनके आदेश के अनुसार फिर वर्धमानपुर पहुंचा। शाम हो गई थी । पूछता-पूछता वह गुप्तधन के घर पर चला गया । घर पर आये अतिथि का किसी ने सत्कार तक नहीं किया । इसके विपरीत उसे भला -बुरा कहकर गुप्तधन और उसकी पत्नी ने घर से बहार धकेलना चाहा। पर सोमलिक संकल्प का पक्का था और सबकी मर्ज़ी के खिलाफ वह घर में घुसकर जा बैठा। भोजन के समय उसे गुप्तधन ने रूखी-सूखी रोटी दे दी । उसे खाकर वह वहीं सो गया ।
स्वप्न में उसने फिर वही दोनों देव दिखे। वे बातें कर रहे थे। एक कह रहा था — "हे पौरुष ! तूमने गुप्तधन को भाग्य से इतना अधिक धन क्यों दे दिया की उसने सोमलिक को भी रोटी दे दी ।"
पौरुष ने उत्तर दिया —-"मेरा इसमें दोष नहीं । मुझे पुरुष के हाथों धर्म -पालन करवाना ही है, उसका फल देना तुम्हारे अधीन है ।"
दुसरे दिन गुप्तधन बीमार हो गया और उसे उपवास करना पडा । इस तरह उसकी क्षतिपूर्ति हो गई ।
सोमलिक अगले दिन सुबह उपभुक्त धन के घर गया। वहां के घर वालों ने भोजन आदि द्वारा उसका सत्कार कराया । सोने के लिए सुन्दर बिस्तर दिए।
सोते-सोते उसने फिर से वही दोनों देवों को सुना। एक कह रहा था —"हे पौरुष ! इसने सोमलिक का सत्कार करते हुए बहुत धन खर्च कर दिया है । अब इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी ?"
दसूरे ने कहा —"हे भाग्य ! सत्कार के लिए धन व्यय करवाना मेरा धर्म था, इसका फल देना तुम्हारे अधीन है ।"
सुबह होने पर सोमलिक ने देखा राज-दरबार से एक राज-पुरुष राज -प्रसाद के रूप में धन की भेंट लाकर उपभुक्त धन को दे रहा था।
यह देखकर सोमलिक ने विचार किया की "यह संचय-रहित उपभुक्त धन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है । जिस धन का दान कर दिया जाए या अच्छे कार्यों में व्यय कर दिया जाये वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है। "
Moral of Story
Moral: पंचतंत्र की हर कहानी जीवन को सही तरह से जीने का पाठ पढ़ाती है।
यह कहानी हमें सिखाती है की गुप्त धन से उपभोकहत धन अच्छा होता है जो किसी सिद्ध कार्य में काम आये।