बढ़ती आबादी से जुड़े मुद्दों को राष्ट्र के एसडीजी एजेंडे के साअच्छी तरह से जोड़ने की जरूरत - आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी
हाल के जनसंख्या विधेयक पर आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी में विशेषज्ञों ने की चर्चा
स्वास्थ्य संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने की राह में बढ़ती आबादी एक बड़ी चुनौती - ड पी आर सोडानी, प्रेसीडेंट, आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटीजयपुर, 19 जुलाई, 2021- प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक 2020 से संबंधित अहम मुद्दों पर चर्चा के लिए आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी, जयपुर में एक विशिष्ट सेमिनार का आयोजन किया गया। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट अफ पपुलेशन साइंसेज, मुंबई के प्रोफेसर ड. श्रीकांत सिंह इस सेमिनार में मुख्य वक्ता के तौर पर शामिल हुए, जबकि आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट ड. पी. आर. सोडानी, आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और एसडी गुप्ता स्कूल अफ पब्लिक हेल्थ के सलाहकार ड. डी. के. मंगल और आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और डीन ड. धीरेंद्र कुमार ने भी इस सेमिनार में विचार व्यक्त किए।
डॉ. डी. के मंगल, प्रोफेसर एवं सलाहकार, एसडी गुप्ता स्कूल अफ पब्लिक हैल्थ, आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी ने इस मुद्दे पर विचार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘दुनिया की आबादी को 1 बिलियन के आंकड़े को छूने में हजारों साल लगे हैं, जबकि सिर्फ 200 साल में यह 7 गुना बढ़ गई है और आज दुनिया की आबादी 7 बिलियन तक पहुंच गई है। अनुमान है कि 2030 तक दुनिया की आबादी 8.5 बिलियन और 2050 तक 9.7 बिलियन हो जाएगी और सदी के अंत तक वैश्विक जनसंख्या लगभग 10.9 बिलियन के आंकड़े तक पहुंच सकती है।’ड. मंगल ने आगे कहा, ‘‘बड़े पैमाने पर जनसंख्या की वृद्धि के अनेक कारण हैं, जिनमें प्रमुख हैं- उत्पादक आयु समूहों में जीवित लोगों की संख्या बढ़ना, प्रजनन दर में व्यापक बदलाव, शहरीकरण में वृद्धि और तेजी से प्रवासन। आने वाली पीढ़ियों के लिए इन प्रवृत्तियों के दूरगामी प्रभाव होंगे। हाल के दिनों में हमने सभी देशों में प्रजनन दर और जीवन प्रत्याशा में भारी बदलाव देखा है। 1970 के आसपास औसतन एक महिला की प्रजनन दर 4.5 से 5 बच्चों तक सीमित थी, जबकि 2015 में दुनिया भर में कुल प्रजनन दर 2.5 प्रतिशत तक गिर गई है और इस अवधि के दौरान जीवन प्रत्याशा 90 के दशक की शुरुआत में 65 वर्ष से बढ़कर 2019 में 73 वर्ष हो गई है। वर्तमान में शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक लोग निवास करते हैं। इन सभी परिवर्तनों के दूरगामी निहितार्थ हैं क्योंकि वे आर्थिक विकास को प्रभावित करते हैं, वे रोजगार, आय वितरण, गरीबी और सामाजिक प्रथाओं को प्रभावित करते हैं। ये कारक स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, आवास, स्वच्छता, पानी, भोजन और ऊर्जा तक न्यूनतम पहुंच सुनिश्चित करने के प्रयासों को भी प्रभावित करते हैं।आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट ड. पी. आर. सोडानी ने जनसंख्या वृद्धि से संबंधित चिंताओं और देश के आर्थिक विकास और सामाजिक-राजनीतिक हालात पर इसके असर की चर्चा की और जीवन की गुणवत्ता और देश के एसडीजी एजेंडे पर बढ़ती आबादी के गहरे असर का खुलासा किया। उन्हांेने कहा, ‘‘आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी ने एक उच्च शिक्षा संस्थान के रूप में विशेष रूप से स्वास्थ्य के क्षेत्र में, नीति निर्माण और नीतिगत लक्ष्यों में सरकार और अन्य संस्थानों द्वारा निर्धारित विभिन्न पहलों का समर्थन करने में भूमिका निभाई है। जनसंख्या के मुद्दे को आर्थिक विकास से जोड़ा जा सकता है। बढ़ती आबादी से जुड़ी अनेक चुनौतियांे का आज हमें सामना करना पड़ रहा है, सबसे बड़ी समस्या यह है कि इससे सेवाओं का वितरण बुरी तरह प्रभावित हुआ है। आज जरूरत इस बात की है कि भौगोलिक प्रसार और आर्थिक स्तर के बावजूद पूरी आबादी के लिए नीतिगत ढांचे को मजबूत किया जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा, ‘‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और भारत सरकार और वैश्विक भागीदारों द्वारा निर्धारित एसडीजी के एजेंडे में निर्दिष्ट स्वास्थ्य संबंधी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अधिक जनसंख्या एक बड़ी चुनौती ड. सोडानी ने आगे कहा, ‘‘अधिक जनसंख्या से स्वास्थ्य क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हो रहा है। ऐसे में स्वास्थ्य संबंधी नीति कार्यक्रमों को जनसंख्या और इससे संबंधित मुद्दों के साथ एकीत किया जाना चाहिए। जनसंख्या में बड़े पैमाने पर वृद्धि होने से आईएमआर, एमएमआर और बाल स्वास्थ्य के मुद्दों पर विपरीत असर पड़ता है। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च पर सकल घरेलू उत्पाद का समग्र प्रतिशत अन्य देशों की तुलना में कम है जो कि समग्र जीडीपी का केवल 1.2 प्रतिशत से 1.3 प्रतिशत है, जबकि यह आदर्श रूप से 2.5 प्रतिशत होना चाहिए। आज स्थिति यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर कम खर्च के कारण बेहतर सेवाएं लोगों की पहुंच से दूर होती जा रही हैं और सीएचसी और पीएचसी को भी संसाधनों की कमी से जूझना पड़ रहा है। इस लिहाज से यह बेहद जरूरी है कि हम अधिक जनसंख्या के मुद्दे को राष्ट्र के एसडीजी एजेंडे के साथ अच्छी तरह से एकीत करें।’इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट अफ पपुलेशन साइंसेज, मुंबई के प्रोफेसर ड. श्रीकांत सिंह ने देश में नीतिगत परिप्रेक्ष्य में बढ़ती आबादी से जुड़े अहम मसलों पर चर्चा की और जनसंख्या संबंधी चुनौतियों को लेकर 5 प्रमुख क्षेत्रों पर फोकस करने का आग्रह किया। ये क्षेत्र हैं- मातृ एवं बाल स्वास्थ्य की स्थिति, प्रजनन क्षमता और परिवार नियोजन, बच्चों में कुपोषण और आयोडीन की कमी, वयस्कों का स्वास्थ्य और गैर-संचारी रोग और विभिन्न रोगों से ग्रस्त होना। उन्होंने कहा, ‘‘पिछले साढ़े तीन दशकों में जनसंख्या संबंधी आंकड़ों में जबरदस्त बदलाव होने से हमारी प्राथमिकताओं के फोकस में भारी बदलाव आया है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस5) के ताजा आंकड़ों ने देश के सामने गंभीर चुनौतियां पेश की हैं, जिनका हल प्राथमिकता के आधार पर तलाशा जाना चाहिएड. सिंह ने आगे कहा, ‘‘पिछले दो दशकों में तेजी से आर्थिक विकास के बावजूद, भारत में महिला स्वास्थ्य या आर्थिक विकास के मामले में प्रगति की आवश्यक गति को हासिल कर पाने की संभावना नजर नहीं आ रही है। कम उम्र में शादी और बच्चे पैदा करने जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं कुपोषण या एनीमिया के महत्वपूर्ण कारणों में से हैं। विशेष रूप से 36-59 महीने की उम्र के बच्चों में भोजन की गुणवत्ता, मात्रा और फ्रीक्वेंसी का ध्यान रखने वाली तीन मुख्य बातें हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव अपर्याप्त आहार की ओर ले जाता है, जिससे कुपोषण की समस्या उत्पन्न होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कम जागरूकता और गरीबी के कारण मातृ, शिशु और छोटे बच्चे के पोषण की अक्सर अनदेखी की जाती है। हमें इसके बारे में जागरूकता फैलाने और कम उम्र में लड़कियों के गर्भवती होने से बचने के उपाय करने की जरूरत है।’’
ड धीरेंद्र कुमार, प्रोफेसर एवं डीन-आईआईएचएमआर ने कहा, ‘‘हम दुनिया के सबसे कुशल लोगों में से एक हैं और कौशल और लोकतंत्र ही वो गुण हैं, जो समाज को सफल बनाते हैं। हमने पिछले 4-5 वर्षों में बहुत सारे बदलाव देखे हैं और एडवांस टैक्नोलॉजी के कारण हमें और सुधारों के लिए तैयार रहना होगा।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘हम इस तथ्य से वाकिफ हैं कि देश की आबादी तेजी से बढ़ रही है और भारत सरकार की तकनीकी रिपोर्ट के अनुसार यह 2026 तक 1.45 बिलियन के आंकड़े को छू लेगी। हालांकि 1981-91 के बाद घोषित विकास दर घट रही है और 1981-91 में 23.9 फीसदी की तुलना में 2001-2011 में यह 17.6 प्रतिशत दर्ज की गई है। देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमें जनसंख्या नियंत्रण नीति बनानी होगी और जनसंख्या नियंत्रण विधेयक 2020 को पारित करते हुए जनसंख्या स्थिरीकरण प्राप्त करने के लिए कदम बढ़ाना होगा। ड धीरेंद्र कुमार ने इस बात पर जोर दिया कि कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 2.1, यानी ‘हम दो हमारे दो’ की नीति मात्र से जनसंख्या के लिंग अनुपात से संबंधित मसले को हल नहीं किया जा सकता, इसलिए यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि हर मां की जगह उसकी बेटी आए। इसलिए हर परिवार में कम से कम एक बेटी होनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि हम अवैध रूप से लिंग निर्धारण, गर्भपात, पुत्र वरीयता से संबंधित मुद्दों के साथ पूरी गंभीरता से निपटने का प्रयास करें।’’
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